मंथन: शिक्षा या मज़ाक? भारत की प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा पर खतरे की घंटी!

_________नजरिया___________
----- लेखक- बृज खंडेलवाल-----
मिसाइल और ड्रोंस बना लो, अंतरिक्ष में शुक्लाजी को पिग्गी राइड करा दो, लेकिन जब तक प्राइमरी और सेकेंडरी स्तर पर शिक्षा व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन नहीं होंगे, जीडीपी का six परसेंट न्यू एजुकेशनल पॉलिसी के क्रियान्वयन पर खर्च नहीं होगा, भारतीय स्टूडेंट्स साइंस, मैथमेटिक्स, भाषा संचार में लड़खड़ाते रहेंगे। ऐसे नहीं बन सकेगा विकसित भारत 2047!! 
2025 तक तो ये भी तय नहीं हो पाया है कि बच्चे कितनी भाषाएं पढ़ेंगे, कब तक इंग्लिश से मुक्ति मिल जाएगी?
गांव देहात कस्बों तक इंग्लिश मीडियम प्राइवेट स्कूल खुल चुके हैं, सरकारी स्कूलों की संख्या घट रही है, समझ नहीं आ रहा है शिक्षा जैसे क्षेत्र में इतनी पॉलिसी अराजकता क्यों!!
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गांव के बुजुर्ग राम नाथ, रिटायर्ड मास्साब कहते हैं, "क्लासरूम में दीवारें हैं, पर दिशा नहीं। ब्लैकबोर्ड है, पर बुनियादी समझ नदारद। भारत की प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा व्यवस्था गहरे संकट में है। हर साल करोड़ों बच्चे स्कूल तो जाते हैं, पर सीखते क्या हैं — यह एक राष्ट्रीय आपदा से कम नहीं!"
तमाम रिपोर्ट बार-बार चीख-चीख कर कह रही हैं कि आठवीं क्लास के बच्चे तीसरी की किताब भी नहीं पढ़ पाते। सरकारी स्कूलों में शिक्षक तो हैं, पर पढ़ाने की लगन नहीं। निजी स्कूलों में फीस है, लेकिन गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का घोर अभाव। पाठ्यक्रम रटंत विद्या को बढ़ावा देते हैं, सोचने-समझने की क्षमता को कुचलते हैं।
बुनियादी गणित और भाषा कौशल की भारी कमी से ये पीढ़ी एक ऐसे भविष्य की ओर बढ़ रही है जहाँ न नौकरी मिलेगी, न समझदारी से फैसले लेने की योग्यता। यह सिर्फ शिक्षा का नहीं, देश की आत्मा का संकट है। अगर अब नहीं जागे, तो एक "डिग्रीधारी परंतु दिशाहीन भारत" तैयार हो रहा है — और यह त्रासदी किसी महामारी से कम नहीं होगी, कहते हैं प्रोफेसर पारस नाथ चौधरी।
हाल ही में, शिक्षा मंत्रालय के तहत एनसीईआरटी द्वारा आयोजित परख राष्ट्रीय सर्वेक्षण 2024 ने भारत की स्कूली शिक्षा व्यवस्था की गंभीर स्थिति को उजागर किया है। इस सर्वे में 781 जिलों के 74,229 स्कूलों में तीसरी, छठी और नौवीं कक्षा के 21.15 लाख से अधिक छात्रों का मूल्यांकन किया गया। नतीजे बताते हैं कि बुनियादी साक्षरता, गणित और तार्किक सोच में छात्रों की कमी चिंता का सबब है।
परख सर्वे, जो राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 के तहत है, ने भाषा, गणित, पर्यावरण अध्ययन (तीसरी और छठी कक्षा) और विज्ञान व सामाजिक विज्ञान (नौवीं कक्षा) में छात्रों का आकलन किया। नतीजों से पता चलता है कि जैसे-जैसे छात्र ऊपरी कक्षाओं में जाते हैं, उनकी योग्यता कम होती जाती है। गणित सबसे कमजोर विषय रहा। तीसरी कक्षा में केवल 55% छात्र 99 तक की संख्याओं को क्रम में लगा पाते हैं, और 58% ही दो अंकों की जोड़-घटाव कर पाते हैं। छठी कक्षा में सिर्फ 53% छात्र 10 तक का पहाड़ा जानते हैं, और केवल 29% साधारण भिन्नों को समझ पाते हैं। नौवीं कक्षा में हालात और खराब हैं, जहां गणित में राष्ट्रीय औसत स्कोर 37% है, और 63% छात्र भिन्न और पूर्णांक जैसे बुनियादी अवधारणाओं को नहीं समझ पाते।
भाषा में भी स्थिति बहुत बेहतर नहीं है। छठी कक्षा में 43% छात्र पाठ की मुख्य बातें समझने या निष्कर्ष निकालने में असमर्थ हैं। नौवीं कक्षा में विज्ञान और सामाजिक विज्ञान में स्कोर 40% के आसपास है, जिसमें छात्र बिजली, ज्यामिति और वैज्ञानिक तर्क जैसी चीजों को समझने में कमजोर दिखे। ये कमियां बताती हैं कि शुरुआती कक्षाओं में बुनियादी कौशल मजबूत नहीं हो पा रहे, जो बाद में और बिगड़ता है।
सर्वे में असमानताएं भी सामने आईं। तीसरी कक्षा में ग्रामीण छात्र शहरियों से भाषा और गणित में बेहतर प्रदर्शन करते हैं, शायद निपुण भारत मिशन जैसे प्रयासों के कारण। लेकिन छठी और नौवीं कक्षा में शहरी छात्र ग्रामीणों से आगे निकल जाते हैं। लिंग के आधार पर अंतर कम है, लेकिन लड़कियां भाषा में थोड़ा बेहतर (तीसरी कक्षा में 65% बनाम 63%) हैं, जबकि गणित में दोनों बराबर हैं। केंद्रीय स्कूल, जैसे केंद्रीय विद्यालय, नौवीं कक्षा में भाषा में बेहतर हैं, लेकिन तीसरी कक्षा में गणित में पीछे हैं। सरकारी स्कूल शुरुआती कक्षाओं में अच्छे हैं, जबकि निजी स्कूल विज्ञान और सामाजिक विज्ञान में बेहतर हैं, लेकिन गणित में कमजोर हैं।
पंजाब, केरल, हिमाचल प्रदेश, चंडीगढ़ और दादरा व नगर हवेली जैसे राज्य शीर्ष पर हैं, जबकि झारखंड, मेघालय और अरुणाचल प्रदेश के जिले सबसे नीचे हैं। ये अंतर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और शिक्षक प्रशिक्षण की कमी को दर्शाते हैं।
शिक्षाविदों ने  एनईपी के अनुरूप नई शिक्षण विधियों और डिजिटल लर्निंग पर जोर दिया है। 
भारत अगर डेटा-आधारित शिक्षा सुधार चाहता है, तो परख सर्वे एक बड़ा अलार्म है। यह न केवल नीतिगत सुधारों की मांग करता है, बल्कि परीक्षा-केंद्रित शिक्षा के बजाय समग्र सीखने की संस्कृति की जरूरत को रेखांकित करता है। तत्काल हस्तक्षेप के बिना, समान और योग्यता-आधारित शिक्षा का सपना अधूरा रहेगा।
-- (लेखक आगरा के जाने माने वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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