रोचक गाथा: जाने कब हम बगीची से फार्म हाउस में और दंड-बैठक से रेव पार्टियों तक पहुंच गए!!
------ नजरिया ------
--- लेखक - राजीव गुप्ता---
तीन दशक पहले शहरों में बगीचियों हुआ करती थीं। शहर के तमाम धनवान और शौकीन लोग शहर से दूर एक बगीची बनवाया करते थे, जिसमें वह अपने परिवार, दोस्तों, रिश्तेदारों के साथ समय-समय पर तमाम प्रकार के आयोजन करके न केवल मनोरंजन के साधन करते थे बल्कि स्वास्थ्य लाभ भी लेते थे। वे दोस्ती, रिश्तेदारी और परिवार में प्रेम भाव का एक नया खून भी संचार करते थे। सावन में इन बगीचों की रौनक में और चार चांद लग जाते थे। बरसात की फुहार के बीच ठंडी-ठंडी हवा में झूलों का आनंद परिवार लिया करता था। मूल रूप से राजस्थान के दाल, बाटी, चूरमा को खाने का जो आनंद इस समय आता है, वो अलग होता है। सावन से लेकर भादों तक दाल-बाटी का आयोजन ज़्यादा होता था।
शहर वासियों के नाम से इन बगीचियों के नाम हुआ करते थे जैसे वान वाली बगीची, आटे वालों की बगीची, दाल वालो की बगीची, भैयाजी की बगीची, हलवाई की बगीची और मुंबई वाली बगीची शहर के लोगों में ज्यादा प्रसिद्ध थीं। इन बगीचियों की एक और विशेषता थी, यहां पर विवाह के लिए लड़के-लड़कियों को दिखाना बड़ा शुभ माना जाता था। सगाई या सौ, दो सौ आदमियों के छोटे प्रोग्राम बहुत ही सुगमता से किए जाते रहे हैं। यमुना नदी के किनारे जो बगीची होती थी उनकी सौंदर्य का तो कहना ही क्या, उसमें आनंद और अधिक हो जाता था। अक्सर बाज़ार की छुट्टी वाले या त्योहार वाले दिन सभी परिवार सदस्य मित्र और आसपड़ोस के लोग बगीची में पहुँच जाते थे। बगीचियों में अखाड़े होते थे उसमें शारीरिक वर्जिश, कुश्ती के बाद तेल, मालिश का भी इंतजाम हुआ करता था। ट्यूबवैल होते थे उसमें ताजा पानी से नहा कर हल्का महसूस होने के साथ भूख का अहसास होता था। यह आयोजन सुबह से शुरू होकर सूरज ढलने तक हुआ करते थे। सुबह से ही चार चक्र में अलग-अलग खाद्य का आनंद लिया जाता था। हलवाइयों के कारीगरों के साथ-साथ घर परिवार के मर्द और औरतें भी पकवान बनाने में हाथ बंटाते थे। विशेष कर भांग और ठंडाई परिवार के लोग ही सिलबट्टे पर घोंटते थे। अनेक प्रकार खेल तमाशे जैसे कबड्डी, अंत्याक्षरी, ताश पत्ती, रस्साकसी, गिट्टी फोड़, लंगड़ी टांग आदि भी खूब होते थे।
इस दाल-बाटी में परिधान का भी बड़ा महत्व था। ज्यादातर लोग भारतीय परंपरा अपनाते थे। घर के बुजुर्ग धोती, कुर्ता और तहमद पहनते थे। बच्चे अक्सर कुर्ता- पजामा पहना करते थे। महिलाओं का तो सदाबहार परिधान साड़ी ही था। वहां पर स्थापित मंदिर में दाल-बाटी का भोग प्रसाद लगाकर परिवार के सभी लोग बैठकर खाते थे। बच्चों से लेकर बूढ़े तक जो मेहमाननवाजी करते थे, वह आज देखने के लिए हम सभी तरसते हैं। अब तो वर्दीधारी वेटर आते हैं और बैठने की पंगत का स्थान बफे और स्टॉलों ने ले लिया है। पहले जमाने में साधन भी कम हुआ करते थे। इसलिए ज्यादातर लोग एकसाथ ही आते थे। सभी वाहनों पर ओवरलोड आवागमन होता था।
90 के दशक के बाद की पीढ़ी ने तो शायद बगीची में दाल-बाटी का केवल नाम ही सुना होगा, कभी उसका आनंद नहीं लिया होगा। नई पीढ़ी फार्म हाउस में रेव पार्टी का आनंद लेती है। सावन का महीना चल रहा है बहुत लोगों का दाल-बाटी के आयोजन में शरीक होने और करने का मन है, पर शायद अब वह हिम्मत नहीं कर पाते, क्योंकि बहुत मेहनत का आयोजन होता है। अब बगीची क्या घर पर भी दाल-बाटी नहीं बनती। अब तो रेडी टू ईट का समय है। हलवाई! अरे नहीं, मिठाई के शोरूम पर जाओ वहां खाओ या घर ले आओ।
(लेखक सामाजिक संस्था लोक स्वर के मुखिया हैं।) मोब. 98370 97850
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