नए भारत की आहट! कस्बाई काउंटर से देश के पटल तक: एक छोटी दुकान तक कैसे पहुँची बदलाव की हवा
------------- नजरिया ------------
जब अपने कुएं से बाहर निकलकर, देश भ्रमण को आप निकलते हैं तो एक नई गतिशीलता, हबड़ दबड़, भागमभागी, रफ्तार आपको चौंकाती है। सबको जल्दी है, कोई पीछे नहीं छूटना चाहता! वाकई, बदल रहा है मेरा भारत।
साल 2026 की दहलीज़ पर खड़ा राष्ट्र, सिर्फ़ आंकड़ों और योजनाओं का देश नहीं, बल्कि बदलती सोच और उभरती उम्मीदों की कहानी गढ़ रहा है। गलियों, कस्बों और छोटे शहरों में एक नया आत्मविश्वास महसूस किया जा सकता है, जहाँ सरकार अब दूर बैठी ताक़त नहीं, बल्कि रोज़मर्रा की ज़िंदगी में शामिल साझेदार लगती है। बीते एक दशक में राष्ट्रीय परिदृश्य नई टेक्नोलॉजी की दखल से बदला है। सफ़ाई आदत बन रही है, बैंक खाते पहचान बन गए हैं, डिजिटल लेन-देन भरोसे की भाषा बोलने लगे हैं, और बेटियाँ भविष्य का केंद्र बन रही हैं।
और ये लोकतांत्रिक बदलाव किसी एक वर्ग तक सीमित नहीं है। किसान, दुकानदार, गृहिणी, छात्र, हर किसी ने अपने-अपने हिस्से का परिवर्तन जिया है। आज स्ट्राइक करने के लिए कैंपसों पर स्टूडेंट्स नहीं मिल रहे हैं, फैक्टरीज में अब लंबी हड़तालें नहीं होती।चुनौतियाँ अब भी हैं, लेकिन निराशा के ऊपर आशा भारी है। 2026 की ओर बढ़ता भारत सपने देखने से नहीं डरता, उन्हें साकार करने का साहस भी जुटा रहा है। यही नए भारत की सबसे बड़ी पूँजी है, आकांक्षाएँ, आत्मबल और आगे बढ़ने का विश्वास। ब्रांड इंडिया पंद्रह वर्षों में मजबूत हुआ है।
________________________
कस्बाई काउंटर से देश के पटल तक: एक छोटी दुकान तक कैसे पहुँची बदलाव की हवा
_______________________
नजरिया/बृज खंडेलवाल
__________________________
सुबह के छह बजे हैं। कर्नाटक की एक डिस्ट्रिक्ट मंड्या के कस्बे, श्री रंगापटनम में, रमेश अपनी छोटी-सी जनरल स्टोर का पुराना शटर उठाते हैं। दुकान बहुत साधारण है, लकड़ी की दो अलमारियाँ, तराज़ू, टॉफियों की शीशियाँ, दाल-चावल की बोरियाँ। बरसों तक ज़िंदगी उधार की कॉपी और खुले पैसों के हिसाब से चलती रही। न कोई बड़ा वाक़या, न कोई बड़ा सपना। लेकिन पिछले दस–बारह सालों में कुछ बदला है। बिना शोर, बिना नारे। बस रोज़मर्रा की ज़िंदगी में।
रमेश कोई नीति-विशेषज्ञ नहीं हैं। उन्होंने कभी सरकारी रिपोर्ट नहीं पढ़ी। लेकिन उन्हें इतना ज़रूर पता है कि जब ज़िंदगी थोड़ी आसान हो जाए, थोड़ी सुरक्षित लगे, तो समझ लीजिए कुछ ठीक हुआ है।
उनकी पत्नी सुनीता को वो दिन आज भी याद हैं, जब उनके गांव में सुबह अँधेरे में खेतों की ओर जाना मजबूरी थी। फिर शौचालय बना, स्वच्छ भारत के तहत। “ये सिर्फ ईंट-पत्थर नहीं थे,” सुनीता कहती हैं, “ये हमारी इज़्ज़त (सम्मान) थी।”
अब बेटियों को अँधेरे का इंतज़ार नहीं करना पड़ता। बीमारी कम हुई। आत्मविश्वास बढ़ा। जो टीवी पर सरकारी योजना लगती थी, वो घर में सुकून बनकर आई।
उसी साल सुनीता के नाम से जनधन योजना में बैंक खाता खुला। पहली बार पासबुक हाथ में आई तो आँखों में चमक थी। सब्सिडी सीधे खाते में आने लगी। बिचौलियों का खेल खत्म हुआ। बैंक अब अमीरों की जगह नहीं रहा, घर का हिस्सा बन गया।
रमेश, जो कभी बैंक से डरते थे, आज एटीएम को मंदिर की घंटी जितना जाना-पहचाना मानते हैं।
बेटी पूजा की परवरिश अलग माहौल में हुई। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ उनके लिए सिर्फ पोस्टर नहीं था। मतलब था, स्कूल पूरा करना। फ्री सरकारी बस सेवा से स्थानीय महिलाओं की जिंदगी बदल रही है। मुफ्त में घूमना, काम के लिए शहर आना, लड़कियों को खूब भा रहा है। स्त्री आजादी, सच में!
आज पूजा नर्स बनने की ट्रेनिंग ले रही है। जब रमेश अचानक बीमार पड़े, तो आयुष्मान भारत योजना ने अस्पताल का खर्च उठाया। पाँच लाख रुपये की सुरक्षा, जो पहले ज़मीन बेचने या क़र्ज़ लेने का मतलब होती।
डिजिटल इंडिया चुपचाप दुकान में दाख़िल हुआ। काउंटर के पास एक क्यूआर कोड टँगा है। ग्राहक मोबाइल से पेमेंट करते हैं। पैसा तुरंत खाते में।
नोटबंदी और कोरोना के दिनों में यही डिजिटल भुगतान दुकान को बचा गया। रमेश हँसते हैं, “पहले मशीन से डर लगता था। अब मेरी अम्मा भी बैलेंस चेक कर लेती हैं।” उज्ज्वला योजना से रसोई का धुआँ खत्म हुआ। चूल्हे की कालिख दीवारों से ही नहीं, फेफड़ों से भी हट गई। सुनीता के पास अब वक़्त है, दुकान में मदद करने का, सिलाई का। साफ़ ईंधन उनके लिए पर्यावरण नहीं, साँस लेने की राहत है।
जीएसटी आने पर रमेश परेशान हुए। बिल, टैक्स, हिसाब, सब नया था। लेकिन धीरे-धीरे व्यवस्था साफ़ हुई। एक टैक्स, कम झंझट। व्यापार ज़्यादा सलीके वाला हुआ। मुद्रा योजना से बिना गारंटी का छोटा क़र्ज़ मिला। दुकान में फ्रिज आया, सामान बढ़ा।
पहली बार रमेश ने सिर्फ गुज़ारे के बारे में नहीं सोचा, आगे बढ़ने का हौसला आया। नौकरी ढूँढने की जगह रोज़गार पैदा करने का जज़्बा जगा।
प्रधानमंत्री आवास योजना से पक्का घर मिला। कच्ची दीवारों की जगह मज़बूत छत। अब घर अस्थायी नहीं, अपना है। सिर ऊँचा हुआ। सबसे छोटा बेटा स्वामी नए दौर की पढ़ाई देख रहा है। नई शिक्षा नीति के तहत पढ़ाई सिर्फ रट्टा नहीं, (कौशल) भी है। SWAYAM जैसे ऑनलाइन कोर्स, वोकेशनल ट्रेनिंग, ये बातें रमेश के बचपन में सपना भी नहीं थीं। आज ये सामान्य हैं।
ये सच है कि सब कुछ परफेक्ट नहीं है। महँगाई चुभती है। नौकरियों की कमी है। दफ़्तरों में चक्कर अभी भी लगते हैं। लेकिन दिशा साफ़ दिखती है, एक छोटी दुकान से भी।
सबसे बड़ा बदलाव सोच में आया है।सफाई अब सरकार का नहीं, सबका काम है। बेटियाँ बोझ नहीं, ताक़त हैं।तकनीक डर नहीं, सहारा है। गरीब अदृश्य नहीं, हक़दार है।
रमेश कभी “विकसित भारत 2047” पर भाषण नहीं देंगे। लेकिन हर सुबह जब वे क्यूआर कोड से पेमेंट लेते हैं, बेटी को नर्सिंग कॉलेज जाते देखते हैं, और बिना धुएँ वाली रसोई में चाय बनती है, तो उन्हें एहसास होता है: बदलाव की हवा उनके मुहल्ले को छूकर नहीं गई। वो अंदर आई, ज़िंदगी बदली, और पीछे छोड़ गई, उम्मीद, जो अनुभव से पैदा हुई है। और शायद, असली बदलाव की पहचान यही है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
____________________________________
Post a Comment
1 Comments
Hawa me sirf sarkari yojana ka prachar. Jandhan khate me kab se pese nahi aye. Ayushman bharat me 5 lakh tak ka ilaaj nahi hota hai.jese kitani hawa hawai khani hai. Desh badala hai theek hai lekin khani faraji hai
ReplyDelete