रिश्तों की रोशनी: दिवाली का असली अर्थ

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चिंतन - डॉ. चीनू अग्रवाल
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अमित और नैना, दोनों मुंबई में कामकाजी दंपति हैं। सुबह से शाम तक दफ़्तर की भागदौड़, मीटिंग्स और बच्चों के स्कूल के बीच ज़िंदगी जैसे एक दौड़ बन गई है। उनके बच्चे, आरव और आन्या ज़्यादातर समय अपने गेम्स या स्क्रीन में व्यस्त रहते हैं।
उस दिन मैं अचानक उनके घर पहुँची। सोचा, दिवाली का मौक़ा है, बच्चों के लिए कुछ गिफ्ट ले चलूँ। बच्चे बहुत खुश हुए। बातें करते-करते मैंने सहज ही पूछ लिया- “तो बच्चों, दिवाली की क्या-क्या तैयारी हो गई?”
आरव ने हँसते हुए कहा, “कुछ नहीं आंटी! रात को मॉल जाएंगे, नया ड्रेस पहनेगे और पटाखे भी फोड़ेंगे!”
मैंने मुस्कराकर अमित और नैना की ओर देखा। उन्होंने भी हल्के अंदाज़ में कहा, “अरे कहाँ अब पहले जैसा माहौल रह गया है। अब तो यही हमारी दिवाली है। हम दोनों काम में व्यस्त रहते हैं, बच्चे अपनी क्लासेज़ में। अब मम्मी-पापा का भी गाँव से आने का मन नहीं करता।”
मैं कुछ पल के लिए चुप रह गई। उनके शब्दों में सच्चाई थी, लेकिन साथ ही एक खालीपन भी। यह दृश्य आजकल बहुत आम है। दिवाली अब केवल छुट्टी, नए कपड़े और डिनर तक सिमटती जा रही है। आजकल दिवाली, जो कभी परिवार और आत्मीयता का प्रतीक थी, अब “इवेंट” या “वीकेंड ब्रेक” बनती जा रही है।
नए कपड़े, महंगे गिफ्ट, सजावट और सोशल मीडिया पर तस्वीरें, पर असली “संपर्क” और “संवाद” कहीं खो गया है। इसमें कोई बुराई नहीं, पर धीरे-धीरे हम वो भावनाएँ खोते जा रहे हैं जो इस त्योहार की आत्मा थीं।
पहले दिवाली का मतलब होता था, पूरा परिवार एक साथ बैठकर घर सजाना, दीये बनाना, लड्डू बनाना, पुराने दिनों की बातें सुनना, हँसी-मज़ाक करना और एक-दूसरे के साथ समय बिताना।
बच्चे दादी-नानी से सीखते थे कि लक्ष्मी पूजन सिर्फ़ धन के लिए नहीं, बल्कि सद्भावना और समृद्धि के लिए किया जाता है। पिता अपने बच्चों को सिखाते थे कि जैसे हम घर को दीयों से रोशन करते हैं, वैसे ही अपने दिलों को भी प्रेम और कृतज्ञता से रोशन करना चाहिए।
दिवाली हमें याद दिलाती है कि अंधकार केवल बाहर नहीं, हमारे रिश्तों के बीच भी होता है, जब हम एक-दूसरे से दूर हो जाते हैं, संवाद खत्म हो जाता है, भावनाएँ अनकही रह जाती हैं। दिवाली का असली अर्थ है- इन अंधेरों को मिटाना।
त्योहार और मनोवैज्ञानिक सुख-समृद्धि
मनोविज्ञान यह बताता है कि परिवार में साझा अनुभव (Shared Experiences) ही भावनात्मक जुड़ाव की नींव होते हैं।
जब परिवार के सदस्य एक साथ मिलकर काम करते हैं, जैसे घर की सफाई करना, दीये सजाना, मिठाई बनाना या पूजा की तैयारी करना, तब केवल काम नहीं होता, बल्कि रिश्तों के बीच एक अदृश्य बंधन बनता है।
ऐसे क्षणों में हमारे मस्तिष्क में “ऑक्सीटोसिन” नामक हार्मोन स्रावित होता है। यह हार्मोन हमारे भीतर सुरक्षा, अपनापन और प्रेम की भावना को बढ़ाता है। यही कारण है कि जब हम मिलकर हँसते हैं, साथ खाते हैं या साथ सजावट करते हैं, तो एक गहरी मानसिक तृप्ति और सुख का अनुभव होता है।
त्योहार न केवल परिवारों को एक सूत्र में बाँधते हैं, बल्कि व्यक्ति के भीतर भी भावनात्मक स्थिरता और सकारात्मक ऊर्जा लाते हैं। सामूहिक गतिविधियाँ तनाव को कम करती हैं, मूड को बेहतर बनाती हैं और हमें यह एहसास कराती हैं कि हम अकेले नहीं हैं। हम एक ऐसे तंत्र का हिस्सा हैं जहाँ प्रेम, सहयोग और परवाह अब भी जीवित है।
पुराने समय में जब परिवार मिलकर त्योहार मनाते थे, तो वे केवल परंपराएँ नहीं निभा रहे होते थे। वे अनजाने में मानसिक स्वास्थ्य को भी पोषित कर रहे होते थे।
वो दीये जो हम घर में जलाते हैं, वे भीतर के अंधकार , उदासी, तनाव और दूरी को भी मिटाने का काम करते हैं।
त्योहारों से रिश्ते क्यों मज़बूत होते हैं?
त्योहार सिर्फ़ तिथि या परंपरा नहीं होते, वे भावनात्मक पुनर्मिलन का अवसर होते हैं। हमारे व्यस्त जीवन में, जहाँ एक साथ बैठना भी एक “टास्क” बन गया है, त्योहार हमें ठहरकर फिर से अपने लोगों से जुड़ने का अवसर देते हैं।
 1. साथ बिताया गया समय (Quality Time)
आज के डिजिटल युग में सबसे बड़ी कमी “साथ का समय” है। हम घर में साथ रहते हुए भी अक्सर मोबाइल या लैपटॉप में डूबे रहते हैं।
त्योहार हमें एक “pause button” देते हैं, ताकि हम रुकें, एक-दूसरे को सच में देखें, सुनें और महसूस करें।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से, जब परिवार के सदस्य एक साथ हँसते हैं और बातें करते हैं, तो यह हमारे भीतर सुख, संतोष और भावनात्मक जुड़ाव की भावना को और गहरा करता है।
जैसे, जब बच्चा दीया सजाता है और माँ उसकी तारीफ़ करती है, तो उस क्षण में बच्चे के मन में “मैं महत्वपूर्ण हूँ” की भावना जन्म लेती है, यही भाव भविष्य में आत्मविश्वास और प्रेम की नींव बनती है।
2. साझा ज़िम्मेदारियाँ (Shared Responsibility)
जब पूरा परिवार एक साथ घर की सफ़ाई करता है, मिठाई बनाता है या पूजा की तैयारी करता है तब यह केवल काम नहीं होता, बल्कि संबंधों का अभ्यास होता है। हर व्यक्ति को महसूस होता है कि वह परिवार का एक अहम हिस्सा है। मनोविज्ञान बताता है कि ऐसे सामूहिक कार्यों से “टीम स्पिरिट” और “एम्पैथी” (सहानुभूति) बढ़ती है। बच्चे सीखते हैं कि काम बाँटने से बोझ नहीं बढ़ता, बल्कि रिश्ते मजबूत होते हैं।
उदाहरण के लिए, यदि बेटा पापा के साथ दीया जलाने में मदद करता है, या बेटी दादी के साथ लड्डू बनाती है तो उन पलों में अनकही शिक्षा छिपी होती है: सहयोग, धैर्य और प्रेम की।
3. स्मृतियाँ बनाना (Creating Emotional Anchors)
त्योहारों के दौरान बनी यादें केवल तस्वीरें नहीं होतीं वे Emotional Anchors बन जाती हैं। जब जीवन में कभी तनाव या अकेलापन आता है, तो वही यादें भीतर से स्थिरता देती हैं। मनोविज्ञान कहता है कि बचपन की सकारात्मक पारिवारिक स्मृतियाँ आगे चलकर व्यक्ति को मानसिक रूप से लचीला (Resilient) बनाती हैं।
सोचिए, कितनी बार किसी पुराने त्यौहार की याद हमें मुस्कराने पर मजबूर कर देती है, वह रंग-बिरंगे रंगोली के रंग, वह घर भर की हलचल और गप्पें, वह दादी की सुनहरी कहानियाँ, वह प्यार भरी झप्पियाँ और गले मिलना। यही भावनात्मक सुरक्षा का आधार है।
कैसे बनाएँ दिवाली को पारिवारिक बंधन का त्योहार
दिवाली को सिर्फ़ “मनाएँ” नहीं महसूस करें, साझा करें, और जिएँ। यहाँ कुछ छोटे, लेकिन गहरे कदम हैं जो घर के हर सदस्य को एक सूत्र में बाँध सकते हैं :- 
1. सजावट में सबको शामिल करें
दीयों की पेंटिंग, तोरण बनाना या कागज़ के लैंप तैयार करना इन कामों में बच्चों और बुज़ुर्गों दोनों को शामिल करें। इससे हर पीढ़ी एक-दूसरे के साथ जुड़ती है, और “हम” की भावना गहरी होती है।
2. कहानी सुनाने का समय बनाइए
दादा-दादी या बड़े-बुज़ुर्गों से कहिए कि वे अपने समय की दिवाली की बातें साझा करें। कैसे वे मिट्टी के दीये बनाते थे, घर में मिलकर मिठाई बनती थी और मोहल्ले भर में एक-दूसरे के घर मिठाई पहुँचाई जाती थी। ये कहानियाँ बच्चों को संस्कृति, मूल्यों और भावनात्मक बुद्धिमत्ता (Emotional Intelligence) का पाठ पढ़ाती हैं।
3. “फैमिली लक्ष्मी पूजन” को भावनात्मक बनाइए
पूजा सिर्फ़ विधि-विधान नहीं होनी चाहिए। हर सदस्य एक बात बोले जिसके लिए वह आभारी है। जैसे, “मैं पापा का आभारी हूँ जो हमेशा मुझे प्रेरित करते हैं।” इस छोटे से अभ्यास से परिवार में कृतज्ञता, स्वीकार्यता और सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह बढ़ता है।
4. डिजिटल डिटॉक्स करें
दिवाली की शाम कुछ घंटे के लिए मोबाइल फोन, टीवी और लैपटॉप से दूर रहें। रिसर्च बताती है कि “face-to-face conversation” भावनात्मक जुड़ाव को दोगुना कर देती है। बच्चों को भी यह अनुभव दें कि सच्चा “कनेक्शन” स्क्रीन से नहीं, दिल से होता है।
5. सेवा और करुणा की परंपरा जोड़ें
दिवाली का अर्थ सिर्फ़ अपने घर को रोशन करना नहीं, बल्कि दूसरों के जीवन में भी रोशनी फैलाना है।
बच्चों को सिखाएँ कि मिठाई या कपड़े किसी ज़रूरतमंद को देना, सफाई कर्मियों या सुरक्षा गार्ड को धन्यवाद कहना ये सब छोटे कदम उनके भीतर दयालुता, संवेदनशीलता और सामाजिक ज़िम्मेदारी जगाते हैं।
यही असली “Value Education” है जो किताबों से नहीं, अनुभव से आती है।
दिवाली का प्रकाश सिर्फ़ घरों में नहीं, दिलों में भी जलना चाहिए
यह छुट्टी या ब्रेक नहीं है, यह अपने अपनों से जुड़ने, साथ समय बिताने और यादें बनाने का मौका है।
जब परिवार एक साथ बैठता है, हँसता है, खेलता है और छोटी-छोटी बातें साझा करता है, तभी वह दीया सच में जलता है, जो जीवनभर रिश्तों को रोशन रखता है।
लेखिका- डॉ. चीनू अग्रवाल
(लेखिका प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक, फीलिंग माइंड्स® संस्था की निदेशक एवं अंतरराष्ट्रीय सोसाइटी फॉर मेंटल हेल्थ एडवोकेसी एंड एक्शन (ISMHAA) की संस्थापक अध्यक्ष हैं।)
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