स्मार्ट सिटी या जाम पुरी?

जीरो इंडस्ट्री सिटी आगरा प्रथम की जगह तीसरे पायदान पर चढ़ा !!
बरसात आते ही आगरा की सड़कों का हाल वैसा हो जाता है, जैसे किसी बूढ़े मरीज को वेंटिलेटर पर डाल दिया गया हो। ज़रा-सी बारिश और शहर की नसें टूट जाती हैं। सड़कें गड्ढों के ऐसे संग्रहालय में बदल जाती हैं कि लगता है हम ताजमहल नहीं, बल्कि नासा के चाँद अभियान में उतर आए हैं। नाले-नालियाँ ऐसे भर-भरकर उफनती हैं जैसे चुनावी रैलियों में नेताओं के खोखले वादे। गली-मोहल्लों में सड़ती गंदगी के ढेर—जहाँ मच्छरों की ‘बारात’ और मक्खियों का ‘भोज’ चलता है—शहर को डेंगू-मलेरिया का मुफ्त पैकेज थमा देते हैं।
और ये सब कोई नई फिल्म का ट्रेलर नहीं है। साल-दर-साल यही रिपीट टेलीकास्ट चलता है। सवाल उठता है: आखिर क्यों नहीं बदलता है मंजर? जवाब साफ है—हमारे दूरदर्शी नेता। वे खुद को जनता का सेवक बताते हैं, लेकिन दरअसल वे जनता के दुखों के आर्किटेक्ट हैं। जेबें भरने, भाषण देने और सेल्फी खिंचवाने में इतने मशगूल कि सड़कों के गड्ढे उन्हें बस वोटों के बंडल नज़र आते हैं।
आगरा को "स्मार्ट सिटी" कहा जाता है, लेकिन हकीकत में ये "जामपुरी" है। मेट्रो निर्माण ने एमजी रोड को मलबे और धूल का महाकुंभ बना दिया है। यात्री रोज़ इस रास्ते पर ऐसे फँसते हैं जैसे जेल की बैरक में बंद हों। यमुना किनारा रोड बरसात के बाद, और हाल ही में आई बाढ़ से बाधित रहा —मानो शहर की धड़कन को किसी ने जानबूझकर रोक दिया हो।
मदिया कटरा, लोहामंडी, बोदला, घटिया... शहर का शायद ही कोई कोना होगा जो जाम से मुक्त हो। ये हालात किसी प्राकृतिक आपदा का नतीजा नहीं, बल्कि राजनैतिक लापरवाही की स्थायी विरासत हैं।
प्रदूषण का प्रहसन
और अब बात करते हैं उस ‘महान उपलब्धि’ की—आगरा को मिला तीसरा स्थान भारत के सबसे स्वच्छ हवा वाले शहरों में। नेता और अफ़सर ऐसे इतराए मानो उन्होंने किसी जादू से हवा में गुलाब की खुशबू घोल दी हो। लेकिन असलियत? सुप्रीम कोर्ट के आदेश से यहाँ कारख़ाने बंद हैं, तो वायु प्रदूषण होगा कहां से। मतलब बिना पढ़े परीक्षा पास कर लेने जैसी खुशी। नेताओं का इसमें योगदान उतना ही है जितना क्रिकेट मैच में दर्शक का।
पीड़ित जनता का कहना है कि प्रदूषण पर ये ‘तमाशा’ जनता की आँखों में धूल झोंकने से ज़्यादा कुछ नहीं। हवा भले साफ हो, लेकिन ज़मीन पर गंदगी, गड्ढे और बीमारी का साम्राज्य पसरा है।
राजनीति का मनोरंजन विभाग
एक बुजुर्ग नागरिक, बुलाकी प्रसाद कहते हैं, "जहाँ जनता बरसाती तालाबों और मौत के गड्ढों में जूझ रही है, वहीं नेता जुलूसों और रैलियों में मस्त हैं। जैसे उनके लिए राजनीति जनसेवा नहीं, मनोरंजन विभाग हो। करदाताओं का पैसा फूँका जा रहा है!" 
पर्यटन उद्योग—जिस पर आगरा की अर्थव्यवस्था टिकी है—इस सबसे सबसे ज़्यादा प्रभावित होता है। ताजमहल देखने आए विदेशी सैलानी जब गड्ढों से बचते-बचाते निकलते हैं, तो उनकी यादों में ताज की खूबसूरती नहीं, आगरा की बदहाली दर्ज हो जाती है। होटल मालिक, गाइड, दुकानदार सबका कारोबार चौपट, लेकिन हमारे नेता उद्घाटन, उठावनी, या शादियों में हाजिरी लगा रहे होते हैं।
नेताओं के लिए कालीन, जनता के लिए गड्ढे
समाजसेवियों का कहना बिल्कुल सही है—नेताओं, मंत्रियों, राज्यपाल की चमचमाती गाड़ियों के लिए सड़कें कालीन की तरह बिछ जाती हैं, लेकिन आम जनता के लिए वही सड़कें मौत के कुएँ हैं। हादसों पर नेताओं की प्रतिक्रिया होती है—“बरसात का मौसम है, हो जाता है।” यानी जनता मरे या बचे, फर्क नहीं पड़ता।
गुप्ता जी कहते हैं: "आगरा की सड़कें इसकी धमनियाँ हैं, लेकिन नेताओं की लापरवाही ने उनमें कोलेस्ट्रॉल भर दिया है।" सच यही है—गड्ढे सड़कों पर कम, नेताओं की नीयत में ज़्यादा हैं।
पर्यटन की साँसें टूटीं
चिकित्सक डॉ. देवाशीष भट्टाचार्य का कहना है—“विदेशी सैलानी भव्यता देखने आते हैं, लेकिन उन्हें गड्ढों और गंदगी से स्वागत मिलता है। आगरा को सोने की अंडा देने वाली मुर्गी समझ रखा है, या कामधेनु गाय?”
नदी कार्यकर्ता चतुर्भुज तिवारी जोड़ते हैं: “ये हालात महज़ असुविधा नहीं, जानलेवा हैं। लेकिन नेता अपनी एयरकंडीशंड गाड़ियों में सुरक्षित हैं, जनता भाड़ में जाए।”
आज ताज का शहर ताजमहल से नहीं, बल्कि जाम और गड्ढों से पहचाना जा रहा है। अगर यही हाल रहा तो आगरा का पर्यटन, उसकी अर्थव्यवस्था और उसकी आत्मा तीनों बरसाती नालों में बह जाएँगे।
अधिवक्ता राहुल की माँग है—“अब बहानों का दौर ख़त्म होना चाहिए। नेताओं को जवाबदेह बनाया जाए।” कार्यकर्ता पद्मिनी अय्यर कहती हैं—“आगरा शोषण नहीं, सुरक्षा का हकदार है।”
सच्चाई ये है कि आगरा की असली समस्या सड़क पर बने गड्ढे नहीं, बल्कि नेताओं के चरित्र में बने दाग और छिद्र हैं जिनकी प्लास्टिक सर्जरी समय की मांग है। अगर वे नहीं भरे गए तो ताज का शहर इतिहास में सिर्फ़ एक शर्मनाक मिसाल बनकर रह जाएगा।
डिस्क्लेमर
यदि इस लेख से किसी नेता को ठेस पहुँची हो, तो इसे बदलाव लाने की प्रेरणा समझें। परिवर्तन का समय आ गया है।
लेखक - बृज खंडेलवाल 
वरिष्ठ पत्रकार, आगरा

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