पर्यावरण संरक्षण: पेड़ों की कटाई पर प्रतिबन्ध से क्या वाकई बदल रहे हैं हालात?

------------ नजरिया ------------- 
लेखक - पूरन डावर 
विश्लेषक एवं चिंतक 
पर्यावरण संरक्षण में पेड़ों की क्या भूमिका है, इसे शब्दों में बयां करना थोड़ा मुश्किल है. बस यूँ समझ लीजिए कि शरीर को चलायमान रखने के लिए जिस तरह से आत्मा का उसमें होना ज़रूरी है. वैसे ही पर्यावरण के लिए पेड़ों की मौजूदगी आवश्यक है. शायद यही वजह है कि देश में पेड़ों की कटाई पर प्रतिबंध है. ज़रूरी अनुमति के बाद ही पेड़ों पर कैंची चलाई जा सकती है. इस नियम का उद्देश्य यही है कि लोग अनावश्यक रूप से पेड़ों को न काटें और पर्यवरण संतुलन बना रहे. लेकिन क्या वास्तव में ऐसा हो रहा है? कहने का मतलब है कि पेड़ों की कटाई पर रोक से पर्यवरण संतुलन को बनाए रखने में मदद मिल रही है?
पर्यावरण में बदलाव से जलवायु सीधे तौर पर प्रभावित होती है. पिछले 10 सालों के आंकड़े यह दर्शाने के लिए काफी हैं कि जलवायु में कितने तीव्र बदलाव हुए हैं. गर्मी अब केवल गर्मी नहीं रही, बल्कि प्रचंड रूप अख्तियार कर चुकी है. 40 या 50 डिग्री पारे की खबरें अब उतनी विचलित नहीं करतीं. पिछले साल देश के कई हिस्सों में पारा 50 डिग्री दर्ज किया गया था. इसके उलट सर्दी का दायरा लगातार सिमटता जा रहा है. महीनों पड़ने वाली सर्दी अब केवल चंद दिनों तक ही सीमित रह गई और उसका असर भी पहले के मुकाबले कम हो रहा है.
इस बात में कोई शक नहीं है कि वैश्विक स्तर पर होने वालीं गतिविधियों से भी पर्यावरण प्रभावित होता है और जलवायु में बदलाव का पहिया तेजी से घूमता है. लेकिन घरेलू स्तर पर पुख्ता उपायों से हम इस पहिये की गति को कम ज़रूर कर सकते हैं. तो सवाल यह है कि पेड़ों की कटाई पर रोक के बावजूद हालात बेहतर क्यों नहीं हो रहे? कई बार अच्छे के लिए बनाए गए नियम भी मुश्किलों की वजह बन जाते हैं और इस मामले में भी यही हो रहा है. पेड़ चाहे घर के अंदर हो या बाहर, उसकी ज़रूरतों से ज्यादा फैलती टहनियों पर कैंची चलाने के लिए भी अनुमति लेनी होती है. इस अनुमति के झंझट के चलते लोगों ने ऐसे पौधे लगाने बंद या कम कर दिए हैं, जो पेड़ बनकर पर्यावरण संरक्षण का हिस्सा बनते. पहले घर के आसपास, गांव, सड़क किनारे आसमान छूते पेड़ होते थे. गुलदार, पीपल, नीम बरगद जैसे पेड़ नजर आना आम था, लेकिन अब इन्हें खोजना पड़ता है.
पेड़ों का काम पर्यावरण संरक्षण से कहीं ज्यादा है. लकड़ी का एक पूरा उद्योग है और इस उद्योग का भविष्य पेड़ों पर टिका हुआ है. पहले इस उद्योग से जुड़े व्यवसायी अपनी निजी जमीनों पर जंगल बसाने को प्रेरित होते थे, ताकि ज़रूरत के हिसाब से पेड़ों को काटकर काम में लाया जा सके. लेकिन कटाई पर रोक और अनुमति के झंझट ने उन्हें इससे दूर कर दिया है. हमारे देश में एक आम और वाजिब अनुमति के लिए भी कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है. ऐसे में कौन अपना समय और एनर्जी बर्बाद करना चाहेगा? ऐसा भी नहीं है कि पेड़ों की कटाई पर रोक से पेड़ कटना पूरी तरह बंद हो गए हैं. गैर कानूनी या अवैध कटाई बदस्तूर जारी है. लिहाजा, अब समय आ गया है कि पूरी व्यवस्था में बदलाव किया जाए.
सरकार को पेड़ों की खेती पर जोर देना चाहिए और लोगों को इसके लिए प्रोत्साहित करना चाहिए. उदाहरण के तौर पर पेड़ों की खेती पर सब्सिडी जैसे उपायों से इसमें मदद मिल सकती है. सार्वजनिक स्थानों पर लगे पेड़ों को काटने पर प्रतिबन्ध भले ही लागू रहें, लेकिन प्राइवेट जमीन पर लगे पेड़ों की कटाई इस प्रतिबन्ध से अछूती रहे. इसके लिए अगल नियमावली तैयार की जा सकती है. इसके तहत पेड़ों को काटने की अनुमति केवल उसी सूरत में मिले, जब उतने ही अनुपात में पौधे पेड़ बनने की स्थिति में पहुंच जाएं. इसके कई फायदे होंगे. ग्रीन कवर में इजाफा होगा. पेड़ों के कटने के दुष्प्रभाव नहीं होंगे, क्योंकि जितने पेड़ कटेंगे, लगभग उतने ही उपलब्ध हो जाएंगे. इससे पर्यावरण संरक्षण में मदद मिलेगी और लकड़ी पर आश्रित कारोबारियों के कारखाने भी चलते रहेंगे. जब कारखाने जीवित रहेंगे, तो मजदूरों के पेट भी भरेंगे.
हमारे देश में समस्या यह है कि नीति निर्माता किताबी ज्ञान को ही संपूर्ण ज्ञान मान लेते हैं और उसी अनुरूप नीतियां तैयार करते हैं. किताबों में मिलने वाला ज्ञान असल जिंदगी के लिहाज से कई मायनों में अलग होता है और इस वजह से नीतियाँ अपने उद्देश्यों में असफल हो जाती हैं. उदाहरण के तौर पर विदेशों की तर्ज पर कई राज्यों ने BRTS (Bus Rapid Transit System) की अवधारणा को अपनाया, ताकि ट्रैफिक सुगम हो सके. लेकिन स्थिति बद से बदतर हो गई. इसके बाद BRTS को हटाया गया. मध्य प्रदेश इसका सबसे जीवंत उदाहरण है. यानी पहले BRTS बनाने पर करोड़ों खर्च हुए फिर उसे तोड़ने पर करोड़ों बहाये गए, और ये पैसा किसकी जेब से निकाला गया? जाहिर है आम आदमी की जेब से. किसी भी नीति की सार्थकता इस बात पर निर्भर करती है कि वो आमजन के जीवन को कैसे सुगम बनती है और इसके लिए किताबी ज्ञान से ज्यादा ज़रूरत धरातल पर उतरकर चीजों को समझने की होती है. पर्यावरण संरक्षण के मामले में भी यही हो रहा है.  
यदि वास्तव में सरकार पर्यावरण संरक्षण पर गंभीर है, तो इसके लिए एक सस्टेनेबल मॉडल विकसित करना होगा. एक ऐसा मॉडल, जो सभी पक्षों के हित को भी ध्यान में रखे. पेड़ों की खेती को प्रोत्साहित करना एक बेहतरीन विकल्प हो सकता है. साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाए कि सार्वजनिक स्थानों पर लगाए जाए वाले पौधे, केवल शो-पीस का काम न करें. कहने का मतलब है कि शहरों को सुंदर दिखाने के लिए अमूमन ऐसे पौधे रोपे जाते हैं, जिनका पर्यावरण संरक्षण में कोई खास योगदान नहीं होता. हर साल सरकारें पौधे लगाने के नाम पर करोड़ों खर्च करती हैं और दर्शाती हैं कि उन्हें पर्यावरण का कितना ख्याल है. हालांकि, यह आंकड़े कभी सामने नहीं आते कि उन पौधों में से कितने पेड़ बने. ऐसे अभियानों की सफलता और सार्थकता तो तभी सिद्ध होगी, जब पौधे पेड़ बन जाएंगे. लिहाजा, असल तस्वीर बयां करने वाले आंकड़े ही जारी किए जाएं. बेहतर भविष्य के लिए गंभीरता एवं समझदारी से काम करना होगा, वरना जैसा चलता आ रहा है, वैसा ही चलेगा और पर्यावरण के हालात बद से बदतर हो जाएंगे.
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