आपको गुदगुदा देंगी रावतपाड़ा और आसपास के इलाकों की ये यादें!
लेखक कौशल नारायण शर्मा आगरा के प्रतिष्ठित डा राम नारायण शर्मा एक्सरे परिवार के सदस्य हैं। उनका खानदान कई पीढ़ियों से रावतपाड़ा के मनकामेश्वर मंदिर क्षेत्र में निवास कर रहा है। अपने परिवार और नजदीकी परिचितों में कुक्कू भाई के नाम से पहचाने जाने वाले कौशल नारायण शर्मा ने आगरा के पुराने शहर खासतौर पर रावतपाड़ा और निकटवर्ती क्षेत्रों के बारे में पुरानी यादें ताजा की हैं। ये यादें न केवल आपको बीते कई सालों की यादें ताजा कर देंगी बल्कि आपको गुदगुदाएंगी भी। पढ़िए कुक्कू भाई के संस्मरण उन्हीं की लेखनी से ------
"मेरे बचपन से देखा हुआ रावतपाड़ा मनकामेश्वर क्षेत्र मुगल कालीन आगरा शहर का पर्याय रहा। रावतपाड़ा, बेलनगंज जैसे पुराने मोहल्ले आगरा की जान रहे।आज भी वो ही व्यापारिक दृष्टिकोण से समृद्ध बना हुआ है।
पूरे वर्ष भर शहर में होने वाले सभी शादी-विवाह बारातें, रामलीला का महीने भर आयोजन, तैराकी मेले की झंडे निशान यात्राएं, उसमें भांग छाने मदमस्त तैराक, उनके साथ वीर रस में बजती बांसुरी और ढोल उसकी लय पर मस्ती से सराबोर, कलात्मकता से डंडे खेलते गुरु-चेलों ने हमेशा हमें मंत्रमुग्ध रखा। धीरे-धीरे आम आदमियों के ये उत्सव लुप्त हो गए। आधुनिकता और यमुना नदी में पानी की कमी ने इस सांस्कृतिक आयोजन को लील लिया।
महीने, दो महीने में विभिन्न मोहल्लों में होने वाले मेले भी शनै: शनै: खत्म हो गए। अलबत्ता व्यापार का आकार बढ़ता गया, आज भी यह इलाका शहर की अर्थव्यवस्था का केंद्र है। चाट, भल्ले, गोलगप्पे, कांजी बड़े, मोंठ, खोए के पेड़े, पेठा, दालमोंठ, कुल्फी, लस्सी, दही-बड़े, सांखें, खस्ता, बेड़ई, जलेबी, मूंग दाल हलुवा, पातीराम की मिठाई, दूध के दर्जनों फड़, पान की दुकानें, खोआ मंडी, गजक गुड की, तिल के लड्डू, खोए की गजक, तरह-तरह के मौसमी फलों जिसमें कई किस्म के बेर, कतारे, घिया के लच्छे, सोलह मजे, फलों के चाट-भंडार होते थे, सब सिमट गए आधुनिकता की दुनिया में।
लाला पातीराम की दुकान शहर में मिष्ठान का एक अद्भुत केंद्र रही। बताते हैं कि दो पीढ़ियों तक चली दुकान में देशी घी एक ही ठिकाने का आया, दूसरा मीठे में चीनी की जगह ये खांड का उपयोग करते थे।इतना ही माल बनता जो 24 घंटे में खत्म हो जाए। सुबह जलेबी, 11 बजे बाद खस्ता और दोपहर एक बजे से इमरती बारह महीने मिलती थी, हां खस्ता के साथ वे अनारदाने से बनी चटनी देते थे। एक आयुर्वेदिक मिश्रण सी चटनी खाते ही पेट में गैस को खारिज कर देती थी। बड़ी नपी-तुली मात्रा में मिलती थी, गर किसी ने दुबारा मांग ली तो बड़े गुस्से के इजहार के बाद जरा सी नाम के लिए। उनके यहां की सोन पपड़ी, मूंग की दाल की बर्फी, मैसूर पाक, गुलाब जामुन, काजू कतली, तिकोनी मठरी, सांखें घेवर, चंद्रकला, गुजिया लाजवाब थी। रावतपाड़ा में दौलतराम भल्ले वालों की ठेल भी एक मशहूर ठिकाना रही है।
मनकामेश्वर गली में चांदी का बर्क चढ़ा पान, खोए की बर्फी, लाला चिम्मन लाल पूरी वालो की पूरी, आलू की लिपटमा सब्जी, कद्दू की सब्जी तो आज तक मशहूर है। पूर्व में कुछ व्यक्ति विशेष खुद बनाकर लाते और उन सबकी कुछ अतिरिक्त विशेषताएं होती थीं। मसलन कई दुकानदार तो अपनी चटनी, सोंठ की भिन्नता के चलते चर्चा में रहा करते थे। अनिल शर्मा हमारे बड़े भाई जो अब दिल्ली के निवासी हैं, ने कई विशेष वृतांत खाने-पीने वाले दुकानदारों के बताए। नूरी दरवाजे मार्ग पर एक आलू के भल्ले वाले थे, जो दूसरी बार सोंठ या चटनी मांगने पर एक चमचा घी गुस्से में भल्ले पर डाल देते थे। ऐसे ही देवीराम के बेलनगंज के समोसे की दुकान की चर्चा में वे बोले, समोसे में चटनी की मांग करने पर वो ग्राहक को डपट देते या समोसा दुबारा डलियां में फेंक देते, ये तुर्रा और कि देवीराम के समोसे खाने आए हो या चटनी।प्रतापपुरा के मूंग की दाल के मंगोड़े, याद राम की लिपटेमा आलू चाट, हमारे एम डी जैन इंटर कॉलेज के तोता के भल्ले, छोले भटूरे, गुलाब के मिर्च वाले आलू चिप्स, तरह-तरह की मीठी सुपाड़ियां और न जाने क्या क्या।
रावतपाड़ा क्षेत्र में मुगल इतिहास की जीवित कड़ियां
आज भी प्राचीन इमारतों में देखी जा सकती हैं।टकसाल गली, जौहरी बाजार डाकखाना कभी मुगलिया कोतवाली हुआ करती थी। रावतपाड़ा चौराहा उन दिनों बारहटोंटी चौराहे के नाम से जाना जाता था, किसी बड़े रईस द्वारा चौराहे पर एक बारहमासी प्याऊ संचालित थी, जिसमें बारह नल लगे थे। कोई आधा दर्जन गाय, भैंस, घोड़ों, अन्य जानवरों के पानी पीने के लिए हौद बने थे। गर्मियों में पानी की प्याऊ प्रायः सभी सक्षम लोगों के घर के आगे जरूर होती। कई ऐतिहासिक मशहूर कुएं भी यहां थे। काफी आज भी हैं, लेकिन उस समय इलाके की जरूरत इन्ही से पूरी होती थी, करौली के मेहनतकश लोग कलशे भर-भर कर सब दुकानों में सुबह से पानी भरते देखे जाते थे। गर्मी की रात में कुएं पर जाकर ठंडे पानी से नहाना वाकई रईसी थी।
लुहार गली का मस्तानी कुआं मुगलकाल का जल स्रोत था, जिसमें जल की गुणवत्ता रखरखाव के लिए नगर निगम नियमित दवाई (लाल दवा) डलवाता था। यही पास में वैद्यों की गली थी, जिसे वर्तमान में वैद्य राम दत्त गली के नाम से जाना जाता है। हमारे परिवार के बुजुर्गों वैद्य राम दत्त, वैद्य राम चंद्र, वैद्य राम प्रसाद, वैद्य राम धन, वैद्य राम सहाय, वैद्य राम मूर्ति, वैद्य राम आधार, वैद्य राम विनोद, वैद्य राम सुधीर, वैद्य राम निवास, वैद्य राम नरेश, वैद्य राम दिनेश व अन्य ने करीब 100 वर्षों से ज्यादा इस आयुर्वेदिक व्यवसाय को सफलता पूर्वक संचालित किया। आज भी नई पीढ़ी के वैद्य राम राजुल, वैद्य राम निधि, वैद्य राम शिरोमणि प्रैक्टिस कर रहे हैं।
रावतपाड़ा में मशहूर व्यापारियों के ठिकाने रहे, जिनमें लाला कोकामल की मार्केट शायद आज भी शहर की सबसे बड़ी मार्केट में शुमार होगी, वे यूपी के सबसे बड़े किराने के व्यापारी बहुत लंबे अरसे तक रहे। आज भी उनके कई प्रतिष्ठान चल रहे हैं। गज्जो मल, मंगोमल नानक राम, मुंशी पन्ना, कुंदन सोप, जवाहर लाल गुप्ता, कन्हीराम दाताराम, सेठ श्यामा चौधरी की दूध की दुकान, कई आयुर्वेदिक जड़ी बूटियों की दुकानें, सरदार जी की तिवारी गली में मेवा की गद्दी, क्षेत्र बजाजा का जनसेवा प्रकल्प गत सौ वर्षों से इलाके की शान हैं।
राम स्वरूप सिंघल गर्ल्स कॉलेज वर्ष 1896 से संचालित कन्या शिक्षा संस्था आज एक बड़ा रूप धारण कर चुकी है। दरेसी/मनकामेश्वर मार्ग पर डा राम नारायण शर्मा का एक्सरे व पैथोलॉजी क्लिनिक भी वर्ष 1937 से संचालित है।
बजाजा व्यवसाय में भी दर्जनों प्राचीन व्यापारिक संस्थाएं हैं, जिनमें चंदा मल दिनेश चंद, खैराती लाल विशंभर नाथ, मिट्ठन लाल प्यारे लाल, श्री नाथ, रमनलाल सोमनाथ, वाधुमल एंड सन्स इत्यादि हैं।
खच्चोमल कसेरे वर्तमान वी के बर्तन, आगरा बर्तन भंडार बड़े व्यापारियों में शुमार होते हैं। बच्चू मल एंड संस का भी किनारी बाजार से पुराना ताल्लुक है। सेठगली भी हलवाइयों और मीठे की दुकानों का एक ऐतिहासिक बाजार है। आज भी रात बारह बजे तक दूध, लस्सी, मिठाइयां मिल जाती हैं।
रावतपाड़ा में क्षेत्रीय रईसों द्वारा कोई दर्जन भर प्राचीन देवस्थान बनवाए हुए हैं, जिनमें सत्य नारायण मंदिर, बिहारी जी मंदिर, गंगा जी मंदिर, खारजी वाला मन्दिर, दाऊ जी मंदिर, ब्रजवासी गोस्वामी द्वारकाधीश मंदिर, माता कालिका मंदिर, राधा मोहन लाल जी मंदिर, बुद्धसेन गोटे वालों का मंदिर, किशोरी वल्लभ देवालय, श्री गोपाल जी चांदी वाला मंदिर, माहेश्वरी समाज का श्री राधा वल्लभ मंदिर, चिड़िया वाला श्री राम प्रभु का मंदिर, श्री लक्ष्मी नारायण मंदिर, किराना कमेटी द्वारा संचालित श्री विट्ठल नाथ मंदिर प्रमुख हैं। मनकामेश्वर मंदिर मूलतः नागाओं का मठ रहा है, बचपन में हमने नागा बाबाओं को खूब आते-जाते देखा।
हमारे चाचा श्री राम प्रकाश शर्मा बताते हैं कि गंगा दशहरा को मनकामेश्वर अखाड़े में सुबह सब जाते थे। वहां मोहल्ले के बुजुर्ग, खलीफा, उस्तादों की देखरेख में हनुमान जी का भोग प्रसाद लगता, सबके बीच में बांटा जाता था। फिर सभी लोग कोकामल मार्केट में ऊपरी मंजिल में बने अखाड़े पर जाते, जहां समोसे और जोरदार ठंडाई का हनुमान जी को भोग लगाकर सबका स्वागत होता। आखिर में सारा जनसमूह रोशन मोहल्ले में सेठ अचल सिंह के पहुंचता, वहां सेठ जी लंगोट धारण करे अखाड़े में सबका स्वागत करते और भव्य जलपान होता। ऐसी भव्यता से घोर गर्मी में गंगा दशहरा जैसा त्यौहार मनाया जाता था।
मनकामेश्वर अखाड़ा आगरा के नामचीन अखाड़ों में रहा है। मैंने फतेहपुरसीकरी के एक गांव में जब अपने मोहल्ले का जिक्र किया तो दो-तीन बुजुर्गों ने बताया
वे जोर करने, कसरत करने यहीं आते थे। क्षेत्रीय रईस, शौकीन उनकी गिजा का प्रबंध करते थे।
आज भी रावतपाड़ा चौराहे पर लाला मुन्नालाल का लाल का पेठा एक बेजोड़ उत्पाद है। शायद बहुत कम लोगों ने वर्तमान में इसका स्वाद चखा होगा। आज भी सुबह 12 बजे बाद इनका लाल पेठा नहीं मिल पाता है। लाला गोपालदास के भी पेठे, दालमोंठ, भीमसेन पेठे वाले, सकटू हलवाई, हीरा हलवाई, डबल हाथरस, मोर मुकुट इत्यादि के अपने शानदार पारंपरिक मिठाई निर्माण के इतिहास हैं।
आगरा का वैभवशाली इतिहास में 12 मंडी, 12 पाड़े,
12 गंज और 36 चौराहों का जिक्र अक्सर आता रहा है। मेरा मानना है कि इन सभी ठिकानों में कोई न कोई नामचीन हलवाई, चाट, खाने-पीने के ठिकाने अवश्य रहे होंगे, जिसका आज जिक्र चटकारे ले-ले कर आज भी पुराने लोग सुनाते हैं।
पंद्रहवीं शताब्दी के आगरा का जो तार्रुफ नजीर अकबराबादी ने कराया, वो आज भी सर्वश्रेष्ठ बयान है आगरा की संस्कृति, इतिहास, मेले, तमाशे, पर्व-त्यौहार, शौक-मौज इत्यादि का।
-- कौशल न. शर्मा
______________________________
Post a Comment
0 Comments